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यथा॑ ह॒ त्यद्व॑सवो गौ॒र्यं॑ चित्प॒दि षि॒ताममु॑ञ्चता यजत्राः। ए॒वो ष्व१॒॑स्मन्मु॑ञ्चता॒ व्यंहः॒ प्र ता॑र्यग्ने प्रत॒रं न॒ आयुः॑ ॥६॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

yathā ha tyad vasavo gauryaṁ cit padi ṣitām amuñcatā yajatrāḥ | evo ṣv asman muñcatā vy aṁhaḥ pra tāry agne prataraṁ na āyuḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

यथा॑। ह॒। त्यत्। व॒स॒वः॒। गौ॒र्य॑म्। चि॒त्। प॒दि। सि॒ताम्। अमु॑ञ्चत। य॒ज॒त्राः॒। ए॒वो इति॑। सु। अ॒स्मत्। मु॒ञ्च॒त॒। वि। अंहः॑। प्र। ता॒रि॒। अ॒ग्ने॒। प्र॒ऽत॒रम्। नः॒। आयुः॑ ॥६॥

ऋग्वेद » मण्डल:4» सूक्त:12» मन्त्र:6 | अष्टक:3» अध्याय:5» वर्ग:12» मन्त्र:6 | मण्डल:4» अनुवाक:2» मन्त्र:6


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (अग्ने) विद्वन् ! (यथा) जैसे आप से (नः) हम लोगों के (प्रतरम्) जिससे संसार में पार होते वह (आयुः) जीवन (प्र, तारि) पार किया जाता है (अंहः) पाप पार किया जाता, वैसा हम लोग आपके पार करानेवाले जीवन और अपराध को पार करें। हे (यजत्राः) विद्वानों के सत्कार करनेवाले (वसवः) निवास करते हुए जनो ! जैसे आप लोग (त्यत्) उस पाप का (ह) निश्चय करि (अमुञ्चत) त्याग करें (पदि) प्राप्त होने योग्य विज्ञान में (चित्) भी (सिताम्) शब्दार्थविज्ञानसम्बन्धिनी (गौर्यम्) स्वच्छ वाणी को प्राप्त हूजिये, वैसे (एवो) ही (अस्मत्) हम से आपको (सु, वि, मुञ्चत) अच्छे प्रकार विशेषता से दूर कीजिये, उसी प्रकार हम लोग भी पाप का त्याग करके उत्तम प्रकार शिक्षित वाणी को प्राप्त होवें ॥६॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमालङ्कार है । हे मनुष्यो ! जैसे धार्मिक यथार्थवक्ता विद्वान् लोग पाप के आचरण का त्याग करके सत्य आचरण में अन्यों को अपने सदृश करने की इच्छा करते हैं, वैसा ही आप लोग भी आचरण करो ॥६॥ इस सूक्त में अग्नि, राजा और विद्वान् के गुण वर्णन करने से इस सूक्त के अर्थ की इस से पूर्व सूक्त के अर्थ के साथ सङ्गति जाननी चाहिये ॥६॥ यह बारहवाँ सूक्त और बारहवाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ॥

अन्वय:

हे अग्ने ! यथा त्वया नः प्रतरमायुः प्रतार्यंहः प्रतारि तथा वयं तव प्रतरमायुरपराधं च प्रतारयेम। हे यजत्रा वसवो ! यथा यूयं त्यदंहो हामुञ्चत पदि चित्सितां गौर्यं प्राप्नुत तथाऽस्मदंहः सुविमुञ्चत तथैवो वयमति पापं त्यक्त्वा सुशिक्षितां वाचं प्राप्नुयाम ॥६॥

पदार्थान्वयभाषाः - (यथा) (ह) खलु (त्यत्) तत् (वसवः) निवसन्तः (गौर्यम्) गौरीं वाचम्। गौरीति वाङ्नामसु पठितम्। (निघं०१.११) (चित्) (पदि) प्राप्तव्ये विज्ञाने (सिताम्) शब्दार्थविज्ञानसम्बन्धिनीम् (अमुञ्चता) त्यजत। अत्र संहितायामिति दीर्घः। (यजत्राः) विदुषां सत्कर्तारः (एवो) एव (सु) (अस्मत्) (मुञ्चता) त्यजत। अत्र संहितायामिति दीर्घः। (वि) (अंहः) (प्र) (तारि) प्लूयते (अग्ने) विद्वन् (प्रतरम्) प्रतरन्ति येन तत् (नः) अस्माकम् (आयुः) जीवनम् ॥६॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमालङ्कारः । हे मनुष्या ! यथा धार्मिका आप्ता विद्वांसः पापाचरणं विहाय सत्यमाचरन्त्यन्यान् स्वसदृशान् कर्त्तुमिच्छन्ति तथैव भवन्तोऽप्याचरन्तु ॥६॥ अत्राग्निराजविद्वद्गुणवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिर्वेद्या ॥६॥ इति द्वादशं सूक्तं द्वादशो वर्गश्च समाप्तः ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात उपमालंकार आहे. हे माणसांनो ! जसे धार्मिक आप्त विद्वान लोक पापाचरणाचा त्याग करून सत्याचरणाने इतरांनाही आपल्याप्रमाणे करण्याची इच्छा बाळगतात, तसेच तुम्हीही वागा. ॥ ६ ॥